Friday, April 6, 2012

पद्य शृंखला - आरंभ हैं प्रचंड



आरंभ हैं प्रचंड बोले मस्तकों के झुंड 

आज ज़ंग की घडी की तुम गुहार दो...

आन बान शान या की जान का हो दान
आज एक धनुष के बाण पे उतार दो...

मन करे सो प्राण दे जो मन करे सो प्राण ले
वही तो एक सर्व शक्तिमान हैं
कृष्ण की पुकार हैं ये भागवत का सार हैं
की युद्ध ही तो वीर का प्रमाण हैं
कौरवों की भीड़ हो या पांडवों का नीड़ हो
जो लड़ सका हैं वो ही तो महान हैं....

जीत की हवस नहीं, किसीपे कोई वश नहीं
क्या ज़िन्दगी हैं ठोकरों पे मार दो..
मौत अंत हैं नहीं तो मौत से भी क्यों डरें
ये जाके आसमान में दहाड़ दो..
आरंभ है प्रचंड.....

हो दया का भाव, या की शौर्य का चुनाव
या की हार का हो घाव तुम ये सोच लो
या की पुरे भाल पर जला रहें विजय का लाल
लाल ये गुलाल तुम ये सोच लो
रंग केसरी हो या मृदंग केसरी हो या
की केसरी हो ताल तुम ये सोच लो...

जिस कवी की कल्पना में ज़िन्दगी हो प्रेमगीत
उस कवी को आज तुम नकार दो.
भीगती नसों में आज फूलती रगों में आज
आग की लपट का तुम बघाड दो.
आरंभ हैं प्रचंड....


-- पीयूष मिश्रा (गुलाल २००९)

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